हर इक सलीब-ओ-दार का नज़्ज़ारा हम हुए हर एक के गुनाह का कफ़्फ़ारा हम हुए आई जो भूरी शाम सुलगने लगा बदन भीगी जो काली रात तो अँगारा हम हुए मिट्टी में मिल गए तो खिलाए गुनाह गुल उबले तो अपने ख़ून का फ़व्वारा हम हुए समझा था वो कि ख़ाक में हम को मिला दिया पैदा इसी ज़मीन से दोबारा हम हुए हर एक चोबदार ने खींची हमारी खाल हर दौर के जुलूस का नक़्क़ारा हम हुए जिन अजनबी ख़लाओं से वाक़िफ़ नहीं कोई 'मुज़्तर' उन्हीं ख़लाओं का सय्यारा हम हुए