अदा अदा तिरी मौज-ए-शराब हो के रही निगाह-ए-मस्त से दुनिया ख़राब हो के रही ग़ज़ब था उन का तलव्वुन कि चार ही दिन में निगाह-ए-लुत्फ़ निगाह-ए-इताब हो के रही तिरी गली की हवा दिल को रास क्या आती हुआ ये हाल कि मिट्टी ख़राब हो के रही वो आह-ए-दिल जिसे सुन सुन के आप हँसते थे ख़दंग-ए-नाज़ का आख़िर जवाब हो के रही पड़ी थी किश्त-ए-तमन्ना जो ख़ुश्क मुद्दत से रहीन-ए-मिन्नत-ए-चश्म-ए-पुर-आब हो के रही हमारी कश्ती-ए-तौबा का ये हुआ अंजाम बहार आते ही ग़र्क़-ए-शराब हो के रही किसी में ताब कहाँ थी कि देखता उन को उठी नक़ाब तो हैरत नक़ाब हो के रही वो बज़्म-ए-ऐश जो रहती थी गर्म रातों को फ़साना हो के रही एक ख़्वाब हो के रही 'जलील' फ़स्ल-ए-बहारी की देखिए तासीर गिरी जो बूँद घटा से शराब हो के रही