अदा है ख़्वाब है तस्कीन है तमाशा है हमारी आँख में इक शख़्स बे-तहाशा है ज़रा सी चाय गिरी और दाग़ दाग़ वरक़ ये ज़िंदगी है कि अख़बार का तराशा है तुम्हारा बोलता चेहरा पलक से छू छू कर ये रात आईना की है ये दिन तराशा है तिरे वजूद से बारा-दरी दमक उट्ठी कि फूल पल्लू सरकने से इर्तिआशा है मैं बे-ज़बाँ नहीं जो बोलता हूँ लिख लिख कर मिरी ज़बान तले ज़हर का बताशा है तुम्हारी याद के चर्कों से लख़्त लख़्त है जी कि ख़ंजरों से किसी ने बदन को क़ाशा है जहान भर से जहाँ-गर्द देखने आएँ कि पुतलियों का मिरे मुल्क में तमाशा है