ऐ ख़ुदा कैसा समाँ आया है शहर में हर सू धुआँ छाया है लुट गई ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की हसरत अहद-ए-नौ ऐसा ज़ियाँ लाया है हिज्र के दश्त में यकसर मैं ने ग़म के दरिया को रवाँ पाया है सिर्फ़ मुझ को नहीं दौलत की तलब सब को दरकार यहाँ माया है बड़ी मुश्किल से जहाँ को 'शौक़ी' मेरा अंदाज़-ए-बयाँ भाया है