अदा शुक्र-ए-ख़ुदा कर गर तुझे पैमाना मिलता है बड़ी मुश्किल से ऐ वाइज़ दर-ए-मय-ख़ाना मिलता है हम अपने रास्ते में का'बा-ओ-बुत-ख़ाना छोड़ आए चले जाते हैं देखें कब दर-ए-जानाना मिलता है किसी भी अंजुमन में जाएँ तेरा ज़िक्र सुनते हैं किसी महफ़िल में भी पहुँचें तिरा अफ़्साना मिलता है समझ में कुछ नहीं आता कि ये क्या राज़ है यारो मिज़ाज-ए-शम्अ से क्यों कर दिल-ए-परवाना मिलता है बड़ी मुश्किल से होता है कहीं 'इक़बाल' सा पैदा कि सदियों में कहीं जा कर कभी फ़रज़ाना मिलता है नज़र वाले को है नज़्ज़ारा-ए-रू-ए-बुताँ हासिल जबीं वाले को ही संग-ए-दर-ए-जानाना मिलता है हमें मयख़ाना-ए-दुनिया में काफ़ी अश्क पीने को जिन्हें आँसू नहीं मिलते उन्हें पैमाना मिलता है तू उन के दर पे 'ज़ाहिद' आ गया तो सोचता क्या है झुका दे सर कहाँ संग-ए-दर-ए-जानाना मिलता है