अदालत से यहाँ रोता हुआ हर मुद्दई निकला करम-फ़रमाई से मुंसिफ़ की हर मुजरिम बरी निकला जो होता आरज़ी सदमा तो सह कर जी लिए होते मगर क्या कीजिए दाग़-ए-जुदाई दाइमी निकला अमीर-ए-शहर तेरी बख़्शिशों का है पता हम को मिला जो तुझ से अपनी आँख में ले कर नमी निकला यक़ीं होता न था हैरत से हम सब को रहे तकते हमाम-ए-ज़िंदगी से बरहना हर आदमी निकला यक़ीनी फ़त्ह थी 'अनवर' मुक़ाबिल हार ही जाता क़बीले का मिरे सरदार जो था साज़िशी निकला