हुस्न का'बे का है कोई न सनम-ख़ाने का सिर्फ़ इक हुस्न-ए-नज़र है तिरे दीवाने का इश्क़ रुस्वा भी है मजबूर भी दीवाना भी और अभी ख़ैर से आग़ाज़ है अफ़्साने का कार-फ़रमा तिरे जलवों की कशिश है वर्ना शम्अ' से दूर का रिश्ता नहीं परवाने का यही तकमील-ए-मोहब्बत की है मंज़िल शायद होश अपना मुझे बाक़ी है न बेगाने का कौन समझेगा मिरे दर्द-ए-मोहब्बत को यहाँ है हक़ीक़त मगर अंदाज़ है अफ़्साने का हुस्न ख़ुद सर्फ़-ए-तमाशा हो दो-आलम क्या है पर्दा उट्ठे तो सही इश्क़ के दीवाने का सुब्ह की छाँव में चौंके तो हैं ग़ाफ़िल लेकिन शम्अ' का सोग कि मातम करें परवाने का तुम ने बर्बाद किया भी तो इस एहसान के साथ जैसे मुद्दत से मुझे शौक़ था मिट जाने का दश्त-ए-ग़ुर्बत से पलटता हूँ मैं जब सू-ए-वतन पूछ लेता हूँ निशाँ बर्क़ से काशाने का झिलमिलाते हुए तारों पे ये होता है गुमाँ ये भी इक रंग है गोया मिरे अफ़्साने का अहल-ए-मय-ख़ाना लिए फिरते हैं आँखों में 'अदीब' रेज़ा-रेज़ा मिरे टूटे हुए पैमाने का