हर एक शय पे है परतव-फ़गन बहार का रंग गुलों का हुस्न जुदा है अलग है ख़ार का रंग लहू में जैसे मचलते हों बर्क़-पारे से ये इंतिज़ार का आलम ये इंतिज़ार का रंग कुछ आज दिल की ख़राबी गुज़र गई हद से उड़ा उड़ा सा है हर एक ग़म-गुसार का रंग कभी तो सुन मिरी बेताबी-ए-फ़िराक़ का हाल कभी तो देख मिरी चश्म-ए-अश्क-बार का रंग तिरे करम से भी निय्यत न इश्क़ की बदली वही है फ़ितरत-ए-मा'सूम-ओ-सादा-कार का रंग बुलाओ अहल-ए-जुनूँ को किसी बुलंदी से बिगड़ चला है बहुत बज़्म-ए-रोज़गार का रंग 'अदीब' काविश-ए-ग़म काम कर गई शायद अब उन के रुख़ से झलकने लगा है प्यार का रंग