अँधेरी रात को दिन के असर में रक्खा है चराग़ हम ने तिरी रहगुज़र में रक्खा है ये हौसला जो अभी बाल-ओ-पर में रक्खा है तुम्हारी याद का जुगनू सफ़र में रक्खा है मकाँ में सोने के शीशे के लोग हों जैसे किसी का नूर किसी की नज़र में रक्खा है ये चाहती हूँ इन्ही दाएरों में जाँ दे दूँ कुछ इतना सोज़ ही रक़्स-ए-भँवर में रक्खा है पलक झपकते ही तहलील हो न जाए कहीं अभी तो ख़्वाब सा मंज़र नज़र में रक्खा है मुझे तो धूप के मौसम क़ुबूल थे लेकिन ये साया किस ने मिरी दोपहर में रक्खा है