अपनी बे-चेहरगी भी देखा कर रोज़ इक आइना न तोड़ा कर तू जिधर जाए दिन निकल आए रौशनी का मिज़ाज पैदा कर ये सदी भी कहीं न खो जाए अपनी मर्ज़ी का कोई लम्हा कर धूप में इस्तिआरा बादल का तू अगर है तो यार साया कर चारा-साज़ी तो कर रहे हैं ग़म तू मिरे आँसुओं का सौदा कर जाने कब छोड़ कर चली जाए ज़िंदगी का न यूँ भरोसा कर मसअले हैं तो हल भी निकलेंगे पास आ साथ बैठ चर्चा कर