अँधेरी शब दिया जुगनू क़मर नईं सफ़र में अब कोई भी हम-सफ़र नईं हम ऐसे बंद कमरों के मकीं हैं जहाँ ताज़ा हवाओं का गुज़र नईं ख़ुशामद चापलूसी झूट ग़ीबत हमारे पास तो कोई हुनर नईं जो ग़ुर्बत के अँधेरों में पले हैं नई तहज़ीब का उन पर असर नईं अजब मौसम मिला है ज़िंदगी को नई रुत है दरख़्तों पर समर नईं सबब अपनी हज़ीमत के कई थे बस इक तन्हा बहादुर-शह-ज़फ़र नईं ये किस जानिब सफ़र तुम कर रहे हो अब आँखों में उमीदों का नगर नईं गुज़रने का उधर से लुत्फ़ ही क्या जिधर मौजें तलातुम और भँवर नईं उस आने वाले कल का क्या भरोसा जिन अगले चंद लम्हों की ख़बर नईं कोई इक रात ही में ख़त्म कर ले मैं क़िस्सा इस क़दर भी मुख़्तसर नईं जिसे 'रुख़्सार' अब मैं सह रहा हूँ मुसलसल इक अज़िय्यत है सफ़र नईं