अँधियारे आँख-आँख में पहना गई है शाम इक चादर-ए-सियाह को फैला गई है शाम राहों में खो गई हैं मोहब्बत की देवियाँ जैसे हर एक मोड़ पे बहका गई है शाम मग़रिब की सम्त जब कभी सूरज उतर गया घर में दिया जलाने चली आ गई है शाम सम्तों में बट गए हैं उजालों के हम-नवा बे-सम्त देख कर मुझे सहरा गई है शाम जिस सम्त देखता हूँ शुआ'ओं के ज़ख़्म हैं किस की निगाह-ए-नाज़ से टकरा गई है शाम अपने वजूद से मैं बिछड़ कर भटक गया तन्हाइयों के ज़ख़्म से महका गई है शाम शहरों के आसमाँ पे परिंदों का शोर है मंज़र कोई हसीन सा दिखला गई है शाम बरसों से चल रही थी ये मौसम के साथ साथ मेरी गली में आन के सुस्ता गई है शाम 'साजिद' उठो यहाँ से कि मौसम उदास है सूरज बिछड़ गया है चलो आ गई है शाम