अदील-ए-वक़्त अमीरों के ज़र पे पलता रहा जभी तो मुल्क में ज़ालिम का रो'ब छाया रहा तमाम प्यासों ने दरिया का रुख़ किया और मैं तुम्हारे आँसू हथेली पे ले के बैठा रहा बहुत से लोग भुलाए पे वो नहीं भूला कई सितारे बुझे पर वो चाँद जलता रहा तबीब बढ़ते गए और मरीज़ मरते रहे दरून-ए-शहर यही कारोबार चलता रहा हवा-ए-तेज़ मिरे ज़ेहन से गुज़रती रही मैं तेरी याद के सारे दिए बचाता रहा ये धूप वक़्त से पहले तपिश गंवाती रही मुसाफ़िरों का सफ़र में शबाब ढलता रहा ये मेरी माँ की दुआ है जभी तो ज़िंदगी में बहुत सी ठोकरें खाईं मगर सँभलता रहा