अगर अपनी चश्म-ए-नम पर मुझे इख़्तियार होता तो भला ये राज़-ए-उल्फ़त कभी आश्कार होता है तुनुक-मिज़ाज सय्याद कुछ अपना बस नहीं है मैं क़फ़स को ले के उड़ता अगर इख़्तियार होता ये ज़रा सी इक झलक ने दिल ओ जाँ को यूँ जलाया तिरी बर्क़-ए-हुस्न से फिर कोई क्या दो-चार होता अजी तौबा इस गरेबाँ की भला बिसात क्या थी ये कहो कि हाथ उलझा नहीं तार-तार होता वो न आते फ़ातिहा को ज़रा मुड़ के देख लेते तो हुजूम-ए-'यास' इतना न सर-ए-मज़ार होता