अगर चराग़ भी आँधी से डर गए होते तो सोचिए कि उजाले किधर गए होते ये मेरे दोस्त मिरे चारा-गर मिरे अहबाब न छेड़ते तो मिरे ज़ख़्म भर गए होते कोई निगाह जो अपनी भी मुंतज़िर होती तो हम भी शाम ढले अपने घर गए होते अगर वो मेरी अयादत को आ गया होता तो दोस्तों के भी चेहरे उतर गए होते हमें तो शौक़-ए-सुख़न ने समेट रक्खा है वगर्ना हम तो कभी के बिखर गए होते उन्हें भी मुझ से मोहब्बत तो है 'नफ़स' लेकिन मैं पूछता तो यक़ीनन मुकर गए होते