अगर कुछ मोड़ रस्ते में न आते तो मुमकिन था तुझे हम भूल जाते मता-ए-होश की बाज़ी लगा कर बिसात-ए-इश्क़ पे हम हार जाते कहाँ माज़ी कहाँ इमरोज़-ओ-फ़र्दा कहाँ से दास्ताँ अपनी सुनाते ग़ुरूर-ज़ब्त से पहलू बचा कर तुम्हीं को दोस्तो हम आज़माते अगर होता न कुछ ख़ुद पर भरोसा तुम्हें ऐ 'दर्द' हम महरम बनाते