अगर मैं मोजज़े को ख़ाकसारी के अयाँ करता बगूले सा बना और ही ज़मीं ओ आसमाँ करता मुझे हक़ गुलशन-ए-ईजाद का गर बाग़बाँ करता तो अश्क-ए-बुलबुलों को आबयार-ए-गुलिस्ताँ करता गिला दिल-सख़्ती-ए-अहबाब का गर मैं बयाँ करता सदफ़ सा पल में आँसू उक़्दा-ए-दिल के रवाँ करता जो दीवान-ए-क़ज़ा की पेशकारी हक़ मुझे देता तो रेशे सर्व के मिज़्गान-ए-चश्म-ए-क़ुमरियाँ करता ख़ुदा गर ख़ाना सामान-ए-क़ज़ा करता ये 'उज़लत' को तो परवानों की राख ऐ शम्अ सुब्ह-ए-आसमाँ करता