अगर न ज़ोहरा-जबीनों को बे-वफ़ा कहिए तो फिर तग़ाफ़ुल-ए-पैहम पे उन को क्या कहिए हुज़ूर क्यूँ मिरी हर बात ना-रवा कहिए बुरा हूँ मैं तो यक़ीनन मुझे बुरा कहिए हसीन यूँ तो ज़माने में कज-अदा हैं सभी मगर सवाल ये है किस को कज-अदा कहिए ख़मोशियों पे जफ़ाओं का जब ये आलम है तो फिर हसीनों से किस तरह मुद्दआ' कहिए जो लुट ही जाना ब-हर-हाल है मआल-ए-सफ़र तो क्यूँ न रहज़न-ए-मंज़िल को रहनुमा कहिए यही वफ़ा का है दस्तूर भी तक़ाज़ा भी कि हर जफ़ा को सितमगार की अदा कहिए बुतों को शौक़-ए-ख़ुदाई हुआ है ऐ 'मुस्लिम' जनाब आप भी पत्थर को अब ख़ुदा कहिए