ग़मों के अंधेरों में ग़र्क़ाब हूँ मैं अमावस का बिखरा हुआ ख़्वाब हूँ मैं मिरे नाम से है ज़माने को नफ़रत कि प्याले में हस्ती के ज़हराब हूँ मैं जमी है उमीदों पे हिरमाँ की काई कि सहरा का इक ख़ुश्क तालाब हूँ मैं क़लम-बंद हैं जिस में रूहों के क़िस्से किताब-ए-ज़माना का वो बाब हूँ मैं पड़ा है जो खाई में तारीकियों की मुरादों का वो नख़्ल-ए-शादाब हूँ मैं तुझे ज़ीस्त की हर ख़ुशी हो मयस्सर मिरा ग़म न कर शाद-ओ-शादाब हूँ मैं तआ'रुफ़ मिरा क्या है पूछो न 'प्रकाश' वफ़ा नाम है और नायाब हूँ मैं