अगर न देते ये जान आप पर तो क्या करते कि आप ही हमें फिर बेवफ़ा कहा करते लुटाए सज्दे तिरा नक़्श-ए-पा जहाँ भी मिला नमाज़-ए-इश्क़ भला कैसे हम क़ज़ा करते नसीब साया तिरे गेसुओं का होता अगर ब-यक-नफ़स शब-ए-ग़म रद्द-ए-हर-बला करते उमीद-ए-लुत्फ़-ओ-करम ही ने हम को मस्त रखा हुई है उम्र तमाम इक यही नशा करते है आप जी तो रक़ीबों से 'बर्क़' महफ़िल में मुझे वो तू की जगह कहते हैं सुना करते