अगर राह में उस की रखा है गाम गए गुज़रे ख़िज़र अलैहिस-सलाम दहन यार का देख चुप लग गई सुख़न याँ हुआ ख़त्म हासिल-कलाम मुझे देख मुँह पर परेशाँ की ज़ुल्फ़ ग़रज़ ये कि जा तू हुई अब तो शाम सर-ए-शाम से रहती हैं काहिशें हमें शौक़ उस माह का है तमाम क़यामत ही याँ चश्म-ओ-दिल से रही चले बस तो वाँ जा के करिए क़याम न देखे जहाँ कोई आँखों की और न लेवे कोई जिस जगह दिल का नाम जहाँ 'मीर' ज़ेर-ओ-ज़बर हो गया ख़िरामाँ हुआ था वो महशर-ख़िराम