अगर शाने पे दिन के रात का परचम नहीं होता ये आलम कुछ भी होता ख़ुशनुमा आलम नहीं होता किसी सूरत टपकता ज़ख़्म दिल का कम नहीं होता ये ज़ख़्म-ए-दिल है ये मिन्नत-कश-ए-मरहम नहीं होता मसर्रत से मसर्रत और ग़म से ग़म नहीं होता अजब होता है आलम जब कोई आलम नहीं होता भरोसा नाख़ुदा पे करने वाला डूब जाता है पुकारे जो ख़ुदा को ग़र्क़-ए-मौज-ए-यम नहीं होता शहादत पाई है दिल ने फ़िदा-ए-गुल-रुख़ाँ हो कर शहीदों का हमारे दीन में मातम नहीं होता ज़हे-क़िस्मत कि आग़ोश-ए-हरम है और हम वर्ना गुनाहों का सिला तो साग़र-ए-ज़मज़म नहीं होता 'नईम' अपना लिया है हम ने ग़म सारे ज़माने का कि जब हद से गुज़र जाता है ग़म फिर ग़म नहीं होता