कभी बातिल को हक़ और हक़ को हम बातिल समझते हैं मुराद-ए-अहल-ए-दिल को सिर्फ़ अहल-ए-दिल समझते हैं दिल-ए-बे-मुद्दआ ही मुद्दआ-ए-ज़ीस्त है अपना इसी बे-हासिली को ज़ीस्त का हासिल समझते हैं ये तेरा नूर वो तेरा मकाँ दिल क्या नज़र क्या है नज़र को हम नज़र समझे न दिल को दिल समझते हैं किनारों पर जो उठते हैं वो तूफ़ाँ कोई क्या जाने हमें तो कम-नज़र आसूदा-ए-साहिल समझते हैं यही अपना अक़ीदा है कोई कुछ भी कहे हम तो ग़ज़ल कहना भी कार-ए-ख़ैर में दाख़िल समझते हैं जिला महसूस होती है 'नईम' आईना-ए-दिल पर किसी की हम निगाह-ए-लुत्फ़ को शामिल समझते हैं