अगर तक़दीर तेरी बाइस-ए-आज़ार हो जाए तुझे लाज़िम है उस से बर-सर-ए-पैकार हो जाए मिरी कश्ती है मैं हूँ और गिर्दाब-ए-मोहब्बत है जो तू हो ना-ख़ुदा मेरा तो बेड़ा पार हो जाए कमाल-ए-ज़ब्त-ए-ग़म से ये गवारा ही नहीं मुझ को कि हर्फ़-ए-आरज़ू शर्मिंदा-ए-इज़हार हो जाए तेरे ख़्वाब-ए-गिराँ पर ऐ दिल-ए-नादाँ तअज्जुब है कि तू सोता रहे सारा जहाँ बेदार हो जाए उन्हें क्यूँ कोसता है जो तुझे कहते हैं कम-हिम्मत बुरा क्या है हक़ीक़त का अगर इज़हार हो जाए तुम्हें ऐ अर्श क्यूँ है तीर-ए-ग़म से इतनी बे-ज़ारी यही बेहतर है ये नावक जिगर के पार हो जाए