अगर वो झूट भी बोले तो हम सच मान लेते हैं नक़ाबों में छुपे चेहरों को हम पहचान लेते हैं ज़रूरत तीर या तलवार की उन को नहीं होती नज़र की मार से वो आशिक़ों की जान लेते हैं वहाँ तो जिस को भी जाना है ख़ाली हाथ जाना है न जाने लोग फिर क्यों इस क़दर सामान लेते हैं इनायत की करम की इक नज़र करते हैं बदले में कभी वो जान लेते हैं कभी ईमान लेते हैं इरादे पर अटल रहते हैं ऐ 'आग़ाज़' हम अपने वही सब कर गुज़रते हैं जो मन में ठान लेते हैं