अगर ये रौशनी क़ल्ब ओ नज़र से आई है तो फिर शबीह-ए-सितम-गर किधर से आई है महक रहा है बदन माँग में सितारे हैं शब-ए-फ़िराक़ बता किस के घर से आई है गुलों में रंग तो ख़ून-ए-जिगर से आया है मगर ये ताज़गी इस चश्म-ए-तर से आई है रविश रविश पे कुछ ऐसे टहल रही है सबा कि जैसे हो के तिरी रहगुज़र से आई है इसे तू गोशा-ए-मख़्सूस में सँभाल के रख किरन है कूचा-ए-शम्स-ओ-क़मर से आई है