अगरचे दर्द-ए-मोहब्बत में कुछ कमी न हुई हज़ार शुक्र कि बे-कैफ़ ज़िंदगी न हुई मैं अपने आप को बंदा कहूँ तो कैसे कहूँ जबीन-ए-शौक़ तो शायान-ए-बंदगी न हुई सर-ए-मज़ार जला भी अगर चराग़ तो क्या तह-ए-मज़ार तो सद-हैफ़ रौशनी न हुई हमारा काम मोहब्बत में जान देना था निगाह-ए-लुत्फ़ किसी की हुई हुई न हुई ग़ज़ल के कहने पे अहबाब ने किया मजबूर मगर 'सलाम' हक़ीक़त में शाइरी न हुई