अहद-ए-वफ़ा न याद दिलाएँ तो क्या करें हम उन को हाल-ए-दिल न सुनाईं तो क्या करें जिन से नहीं है आप की मंज़िल को वास्ता उन रास्तों से लौट न जाएँ तो क्या करें वो हर तरफ़ हैं सम्त की जब क़ैद ही नहीं दैर-ओ-हरम में सर न झुकाएँ तो क्या करें मोहकम है रब्त-ए-इश्क़ तो नज़दीक-ओ-दूर क्या आएँ तो क्या करें वो न आएँ तो क्या करें माना कि हम को ताब-ए-नज़र है न शौक़-ए-दीद रुख़ से वो ख़ुद ही पर्दा उठाएँ तो क्या करें 'अशरफ़' को था अमल से ज़ियादा करम पे नाज़ काम आ गई हैं उस की ख़ताएँ तो क्या करें