अहल-ए-दिल गर जहाँ से उठता है इक जहाँ जिस्म ओ जाँ से उठता है चलो ऐ हम-रहो ग़नीमत है जो क़दम इस जहाँ से उठता है जम'अ रखते नहीं, नहीं मालूम ख़र्च अपना कहाँ से उठता है गर नक़ाब उस के मुँह से उट्ठी नहीं शोर क्यूँ कारवाँ से उठता है वाए बे-ताक़ती ओ बे-सब्री पर्दा जब दरमियाँ से उठता है फिर वहीं गिर पड़े है परवाना गर टुक इक शम्अ-दाँ से उठता है क़िस्सा-ए-'मुसहफ़ी' सुना कर यार इश्क़ इस दास्ताँ से उठता है