अहल-ए-मोहब्बत की मजबूरी बढ़ती जाती है मिट्टी से गुलाब की दूरी बढ़ती जाती है मेहराबों से महल-सरा तक ढेरों-ढेर चराग़ जलते जाते हैं बे-नूरी बढ़ती जाती है कारोबार में अब के ख़सारा और तरह का है काम नहीं बढ़ता मज़दूरी बढ़ती जाती है जैसे जैसे जिस्म तशफ़्फ़ी पाता जाता है वैसे वैसे क़ल्ब से दूरी बढ़ती जाती है गिर्या-ए-नीम-शबी की ने'मत जब से बहाल हुई हर लहज़ा उम्मीद-ए-हुज़ूरी बढ़ती जाती है