अह्ल-ए-दुनिया ने सिखाया मुझे हैराँ होना कैसे इंसाँ हैं कि आता नहीं इंसाँ होना क्या तिरी ज़ुल्फ़-ए-सियह-ताब को ऐ माया-नाज़ ग़म-ए-उल्फ़त से भी आता है परेशाँ होना ग़ैरत-ए-मेहर कहा उन को तो हँस कर बोले कैसे मंज़ूर हो अब शम-ए-शबिस्ताँ होना और हुस्न-ए-ग़म-ए-हस्ती को बढ़ा देता है शौक़-ए-गेसू में तिरे दिल का परेशाँ होना न बहारों से ग़रज़ है न ख़िज़ाँ से मतलब सीख ले मुझ से कोई ख़ार-बदामाँ होना मेरी दानिस्त में तौहीन-ए-गुनहगारी है ऐ गुनहगार गुनाहों पे पशेमाँ होना कअ'र-ए-दरिया में भी इक साहिल-ए-राहत है निहाँ भूल है मौजा-ए-तूफ़ाँ से हिरासाँ होना