अहल-ए-जहाँ हरीफ़ हमारे हुए तो क्या हम भी हैं आज वक़्त के मारे हुए तो क्या मेहराब ओ दर को फिर भी उजाले नहीं नसीब आँगन में मेरे चाँद सितारे हुए तो क्या दिल जब हमारा ख़ाना-ए-वीरान हो गया उस वक़्त पूरे ख़्वाब हमारे हुए तो क्या अब दीद की तलब है न मिलने की आरज़ू उन की तरफ़ से लाख इशारे हुए तो क्या फूलों में दिलकशी है न कलियों प है निखार रंगीन गुल्सिताँ के नज़ारे हुए तो क्या ताबिंदगी निगाह की जब मर के रह गई अब आएँ वो नक़ाब उतारे हुए तो क्या हारा नहीं हूँ अब भी मोहब्बत की जंग मैं राह-ए-वफ़ा में मुझ को ख़सारे हुए तो क्या साहिल प ले के जाएगा 'ख़ालिद' तुम्हारा अज़्म दरिया के दूर तुम से किनारे हुए तो क्या