जुनून-ए-इश्क़ जानाँ अक़्ल के मारों से क्या कहता इन असनाम-ए-ख़याली के परस्तारों से क्या कहता मोहब्बत खोलती है राज़ हुश्यारी-ओ-मस्ती के न खुलते ये तो मैं इन के तलब-गारों से क्या कहता जफ़ा से उस का मक़्सद दिल जिगर का पास-ए-ख़ातिर था वफ़ा करता तो ग़म के नाज़-बरदारों से क्या कहता सुना करता सदा बातें अगर बुक़रात-ओ-लुक़्माँ की तो फिर उस बज़्म-ए-हस्ती के तरह-दारों से क्या कहता जहाँ बर-दोश थे हर-चंद जल्वे मेहर-ए-ताबाँ के यहीं रुकता तो शब के चाँद और तारों से क्या कहता जो रिंदों में न जाता महफ़िल-ए-वा'ज़-ओ-नसीहत से तो चश्म-ए-मय-गूँ मस्त-ए-नाज़ मह-पारों से क्या कहता