आख़िरी मा'रका अब शहर-ए-धुआँ-धार में है मेरे सिरहाने का पत्थर इसी दीवार में है अब हमें पिछले हवाला नहीं देना पड़ते इक यही फ़ाएदा बिगड़े हुए किरदार में है बेशतर लोग जिसे उम्र-ए-रवाँ कहते हैं वो तो इक शाम है और कूचा-ए-दिलदार में है ये भी मुमकिन है कि लहजा ही सलामत न रहे मज्लिस-ए-शहर भी अब शहर के बाज़ार में है दिल कहाँ अपनी रियासत से अलग जाता है वो तो अब भी उसी उजड़े हुए दरबार में है