शाम के ब'अद सितारों को सँभलने न दिया रात को रोक लिया चाँद को ढलने न दिया मौज-ए-बातिन कभी औक़ात से बाहर न गई हद के अंदर भी किसी शय को मचलने न दिया आग तो चारों ही जानिब थी पर अच्छा ये है होश-मंदी से किसी चीज़ को जलने न दिया अब के मुख़्तार ने मुहताज की दीवार का क़द जितना मामूल है उतना भी निकलने न दिया जिन बुज़ुर्गों की विरासत के अमीं हैं हम लोग उन की क़ब्रों ने कभी शहर बदलने न दिया