अहवाल-ए-परेशाँ पर कुछ तब्सिरा उस का भी हालात के सिरहाने कुछ देर वो रोया भी तज्दीद-ए-तअल्लुक़ पर क्या हर्फ़ कि जब उस ने रिश्तों की इबारत को लिख लिख के मिटाया भी सदियों की मसाफ़त थी अब क़िस्सा-ए-माज़ी है उम्मीद के दरिया भी एहसास के सहरा भी कुछ देर को दम लेने ठहरे थे यहाँ साथी पैरों से लिपटने को तय्यार है रस्ता भी लिक्खा था जो अफ़्साना वो रेत पे लिक्खा था पानी पे बनाया था जो नक़्श बनाया भी काग़ज़ ये समझता है बार उस पे ख़राशें में याँ ख़ून-ए-जिगर टपका जो लफ़्ज़ कि लिक्खा भी 'आज़ाद' तुझे उस ने अपना नहीं समझा बस गो हाल भी पूछा था और हाथ मिलाया भी