ऐ दोस्त जुदाई का अब कोई मुदावा दे या आतिश-ए-हिज्राँ को कुछ और भी भड़का दे ऐ बहर-ए-सख़ा आख़िर कब तक ये ग़लत-बख़्शी सहरा को मिले क़तरा और ज़र्रे को दरिया दे वो ग़ुंचा-दहन बोले कुछ मुँह से कि मत बोले ऐ बाद-ए-सबा मेरा पैग़ाम तो पहुँचा दे अंगूर का रस पी कर तस्कीन नहीं होती तपते हुए होंटों से तपती हुई सहबा दे आग़ाज़-ए-मोहब्बत क्या तम्हीद-ए-ख़राबी है ऐ तर्क-ए-जफ़ा-पेशा हाँ कुछ तो इशारा दे नाकाम-ए-तमन्ना से तू काम की बातें कर ऐ हुस्न-ए-बहाना-जू मत कल का भुलावा दे हम इश्क़ के मारों के अंदाज़ निराले हैं देखो तो बहुत उलझे समझो तो बहुत सादे उस वा'दा-ए-फ़र्दा का क्या ख़ाक यक़ीं आए हर सुब्ह शब-ए-ग़म को जो और बढ़ावा दे 'नक़वी' जिसे ख़ुद अपनी नज़रों पे न हो क़ाबू गुस्ताख़-निगाही की वो तुझ को सज़ा क्या दे