ऐ ख़ुदा ऐसा मो'जिज़ा हो कोई इश्क़ में मेरे मुब्तला हो कोई इस तरह देखता हूँ मैं उस को जिस तरह ख़्वाब देखता हो कोई ऐन मुमकिन है इस ग़ज़ल में शेर मेरे हिस्सा के कह रहा हो कोई रब का जो हर कहा क़ुबूल करे उस के होंटों पे क्या गिला हो कोई गुम-शुदा लिख के एक पर्चे पर मेरी तस्वीर बाँटता हो कोई शब-ए-फ़ुर्क़त का ग़म लिए घर में आज की रात जागता हो कोई दस्तरस में नहीं है चैन-ओ-सुकूँ ज़िंदगी ग़म का सिलसिला हो कोई झूम उठते हैं देख कर उस को नग़्मा-ए-ज़िंदगी नशा हो कोई