ऐ वहशत-ए-जाँ दर्द के शहकार बहुत हैं ज़िंदा हैं मगर लोग ये बीमार बहुत हैं नफ़रत में नहीं ऐब मोहब्बत पे है बंदिश इस शहर में इस तर्ज़ के मेआ'र बहुत हैं ये मश्क़-ए-तबस्सुम है फ़क़त रस्म-ए-ज़माना शिकवे तो पस-ए-पर्दा-ए-इज़हार बहुत हैं इक मुझ को तिरा दर्द भी मंज़ूर है जानाँ ख़ुशियों के तिरी वर्ना तलबगार बहुत हैं वीराने में हो सकता है महफ़ूज़ रहें हम इंसान की नगरी में तो खूँ-ख़्वार बहुत हैं जिस्मों की तिजारत तो हमेशा से हुई है रूहों के भी इस दौर में बाज़ार बहुत हैं मासूम-ए-गुनह सिर्फ़ गुनाहगार वहीं हैं जिस शहर में इंसाफ़ के दरबार बहुत हैं ठहरे हुए आँसू कई जागी हुई रातें 'आसिम' पे तिरे दर्द के आसार बहुत हैं