बस अब की यार ख़मोशी की इंतिहा बोले बढ़े सुकूत कुछ इतना कि ख़ुद ख़ुदा बोले ग़लत है पूछना लोगों से दास्तान-ए-सितम ज़बाँ पे मुहर लगी हो तो कोई क्या बोले बंधेंगे बंद कहाँ आँधियों की लहरों पर किवाड़ खोल दो ऐसा न हो हवा बोले जो एक घर के मसाइल सुनाने आए थे वो शहरयार के आगे जुदा जुदा बोले सदा-ए-पा है तिरी तू नहीं क़रीब मगर फ़लक पे अब्र नहीं है मगर घटा बोले किसी को रब्त नहीं है फ़न-ए-समाअ'त से ये हाल हो तो कोई किस क़दर भला बोले वो मुझ से बात करे जब तो यूँ लगे 'आसिम' कि आश्ना से कोई ग़ैर-आश्ना बोले