मैं वो सुकूत समाअ'त का हूँ हर पल की आहट सुनता हूँ ख़ुद को देख के सोच रहा हूँ वैसा कब हूँ मैं जैसा हूँ जलते हुए सूरज के नीचे मैं अपने साए में खड़ा हूँ क्या क़ुर्बत क्या दूरी हर-पल जी भी रहा हूँ मर भी रहा हूँ मुझ सा कोई ख़ुश-फ़हम न होगा बेद की शाख़ों से फल चाहूँ उम्र ढली तकमील में लेकिन जैसा था अब तक वैसा हूँ हर इम्काँ मानिंद-ए-गुमाँ है दरिया हूँ या इक सहरा हूँ हस्ती के इस आईने में तू मेरा मैं अक्स तिरा हूँ ये दिन-रात मिरा परतव हैं डूब रहा हूँ उभर रहा हूँ