इक बात यही शुक्र मनाने के लिए है अब पास नहीं कुछ भी गँवाने के लिए है उस को ये सुहूलत है कि जब चाहे वो रूठे वो जानता है कोई मनाने के लिए है ये बाद-ए-सबा ख़ुशबू परिंदों की सदाएँ हर शय उसे खिड़की पे बुलाने के लिए है कुछ पेड़ हरे रहते हैं पतझड़ हो कि सावन चेहरे पे तबस्सुम ये बताने के लिए है हर शे'र में आ जाता है क्यों ज़िक्र उसी का ये शौक़-ए-सुख़न जिस को भुलाने के लिए है