ऐसा मंज़र तो कभी देखा न था रौशनी में भी मिरा साया न था प्यार के बादल तो गुज़रे थे मगर दिल के सहरा में कोई बरसा न था उम्र-भर पढ़ता रहा ऐसा भी ख़त तू ने मेरे नाम जो लिक्खा न था जिस्म की दीवार इक थी दरमियाँ मैं ने पा कर भी तुझे पाया न था यूँ तो शबनम था मगर ऐ दोस्तो मैं किसी भी फूल पर बिखरा न था मौत सीने से लगा लेने को है ज़िंदगी ने हाल तक पूछा न था इक हुजूम-मह-ए-वशॉं था बज़्म में बस वही इक चाँद का टुकड़ा न था