ऐसे देखा है कि देखा ही न हो जैसे मुझ को तिरी पर्वा ही न हो बाज़ घर शहर में ऐसे देखे जैसे उन में कोई रहता ही न हो मुझ से कतरा के भला क्यूँ जाता शायद उस ने मुझे देखा ही न हो ये समझता है हर आने वाला मैं न आऊँ तो तमाशा ही न हो यूँ भटकने पे हूँ क़ाने जैसे रास्तों में कोई दरिया ही न हो रात हर चाप पे आता था ख़याल उठ के देखूँ कोई आया ही न हो कैसे छोड़ूँ दर-ओ-दीवार अपने क्या ख़बर लौट के आना ही न हो हैं सभी ग़ैर तो अपना मस्कन शहर क्यूँ हो कोई सहरा ही न हो यूँ तो कहने को बहुत कुछ है 'शुऊर' क्या कहूँ जब कोई सुनता ही न हो