ऐसे हैराँ हैं कि हैरत की कोई हद ही नहीं अक्स टूटा है मगर आइने पे ज़द ही नहीं हम तिरे ज़र्फ़ की क़ामत से बहुत छोटे हैं तेरे रुत्बे के बराबर तो यहाँ क़द ही नहीं अब यही आख़िरी हल है कि मदीने पहुँचूँ इक वही दर है कि जिस दर पे कोई रद ही नहीं हर बुढ़ापे को बुज़ुर्गी भी नहीं मिल सकती तंग-गलियों के नसीबों में ये बरगद ही नहीं अपने लहजे के तलफ़्फ़ुज़ से ये तश्दीद हटा देख अल्फ़ाज़ के चेहरों पे कहीं शद ही नहीं