ऐसे ही नहीं इतनी ये शौक़ीन हुई है तहरीर मिरी ख़ून से रंगीन हुई है ऐ अक़्ल-ए-गुनहगार तिरी बात में आ कर शहर-ए-दिल-ए-जज़्बात की तौहीन हुई है गुज़रेगी क़यामत अभी इक सम्त गुमाँ से आँखों को खुला रखने की तल्क़ीन हुई है इस शहर-ए-दिल-आज़ार के हर कूचे गली में ख़्वाबों की बड़ी धूम से तदफ़ीन हुई है उठता है दीवानों का यहाँ रोज़ जनाज़ा ऐ अर्ज़-ए-वतन तू भी फ़िलिस्तीन हुई है हूँ इस लिए 'गुलफ़ाम' शगुफ़्ता मैं गुलों से काँटों से मिरे हुस्न की तज़ईन हुई है