ऐसे की मोहब्बत को मोहब्बत न कहेंगे इस आम इनायत को इनायत न कहेंगे कहिए तो कहूँ अंजुमन-ए-ग़ैर को रूदाद क्या अब भी इसे आप करामत न कहेंगे समझेंगे न अग़्यार को अग़्यार कहाँ तक कब तक वो मोहब्बत को मोहब्बत न कहेंगे जब अरबदा-जू तुम हो तो क्यूँ सब्र समेटें हम इस में रक़ीबों की शरारत न कहेंगे है याद 'ज़हीर' उन का शब-ए-वस्ल बिगड़ना वो तल्ख़ी-ए-दुश्नाम की लज़्ज़त न कहेंगे