ऐसे में रोज़ रोज़ कोई ढूँडता मुझे आवाज़ दे रही थी उधर की हवा मुझे ऐसा हुआ कि घर से न निकला तमाम दिन जैसे कि ख़ुद से आज कोई काम था मुझे पर्दे के आस-पास कोई बाग़ ही न हो खिड़की खुली तो फूल का धोका हुआ मुझे ये पेड़ जिस पे फूल न पत्ती न टहनियाँ दस बीस साल बाद जो ख़ुद सा लगा मुझे मैं आज भी वही हूँ वफ़ा थी जिसे अज़ीज़ फ़ुर्सत मिले तो आ के कभी देख जा मुझे आँखों में दिल उतर पड़ा आईना देख कर आया था इक ख़याल बहुत दूर का मुझे ये फ़िक्र आ पड़ी है कि बदले गए न हों साए से कह रहा हूँ ज़रा देखना मुझे कहते हैं यार-दोस्त अगर बेवफ़ा कहें ऐ 'अश्क' आँसुओं ने भी क्या दे दिया मुझे