ऐसे पुर-नूर-ओ-ज़िया यार के रुख़्सारे हैं जिन के आगे मह-ओ-ख़ुर्शीद भी दो तारे हैं कोई इन आँखों से इस सब्ज़ा-ए-ख़त को पूछे ये वो काँटे हैं कि पलकों से सिवा प्यारे हैं कोई सब्क़त न कभी ख़ाल से जितने हो बचो साँप गेसू-ए-सियह-फ़ाम से मन हारे हैं क्यूँ कर अंगिया में न हो सूरत-ए-जौज़ा पैदा गोरे गोरे तिरे पिस्ताँ हैं कि मह-पारे हैं फ़स्ल-ए-गुल आए कली कोई न कोई चटके आज मुर्ग़ान-ए-सहर बाग़ में चहकारे हैं इश्क़-ए-अतफ़ाल-ए-चमन में हैं अनादिल बेताब आशियानों का ये आलम है कि गहवारे हैं क़त्ल करता है मुझे क्यूँ शब-ए-फ़ुर्क़त ख़ामोश ऐ मोअज़्ज़िन मद-ए-तकबीर नहीं आरे हैं एक दिन परचा लगाएँगे नकीरैन ज़रूर ये फ़रिश्ते नहीं अख़बार के हरकारे हैं ख़ाल-ए-मुश्कीं ने दिल ऐसा ही जलाया है कि बस कोएलों पर भी ये धोका है कि अंगारे हैं ख़्वान-ए-ने'मत से कभी ख़त न उठाएँगे बख़ील माल खा सकती हैं तक़दीर ने मुँह मारे हैं न सज़ा-वार-ए-हज़र हूँ न मुबारक है सफ़र मेरे पल्ले पे न साबित हैं न सय्यारे हैं रंग गुलज़ार का शबनम सा उड़ा जाता है रू-ब-रू तेरे हज़ारी नहीं फ़व्वारे हैं वाह क्या यार के होंटों की मैं तारीफ़ करूँ जान शीरीं नहीं जिन से वो शकर-पारे हैं ख़ाना-ए-इश्क़ के मेहमाँ हैं हम और तदूर दाग़ हैं हम को नसीब और उसे अंगारे हैं 'बहर' अय्याम-ए-जुदाई में न कपड़े फाड़ो ये समझ लो कि शब-ए-वस्ल के कफ़्फ़ारे हैं