ऐसे रोया कि दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया रात भर दर्द की तकरार ने सोने न दिया तुम जो आए तो कहाँ नींद कहाँ का आराम कैफ़-ओ-मस्ती भरे इसरार ने सोने न दिया हिज्र की आग ने दिन-रात जलाया हम को रोज़-ओ-शब दीदा-ए-बेदार ने सोने न दिया ज़ख़्म रोए कभी आँखें तो कभी दिल तड़पा एक लम्हा इन्हीं दो-चार ने सोने न दिया उस की यादों का हर इक नक़्श बुलाता था मुझे मुझ को शब भर दर-ओ-दीवार ने सोने न दिया वस्ल की रात अजब रंग में गुज़री 'ज़ाकिर' यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया